गतांक का शेष
मंगल दोष निर्णय
मांगलिक दोष परिहार सूत्रम्
कुजदोषवती देया कुजदोषवते किल। नास्ति न चानिष्टं दम्पत्योः सुखवर्धनम् ।। अर्थ-मंगलीक (मंगल दोषवाली) कन्या, मंगल दोष वाले वर को देने से मंगल का दोष नहीं लगता और कोई अनिष्ट भी नहीं होता। बल्कि वर-वधू का दाम्पत्य सुख बढ़ता है।
शनिभौमोऽथवा कश्चित्पापो वा तादृशो भवेत्। तेष्वेव भवनेष्वेव भौमदोषविनाशकृत् ॥ अर्थ-वर-कन्या की जन्मकुण्डली में अनिष्ट स्थान स्थित शनि, मंगल अथवा उसी के जोड़-तोड़ का अन्य कोई पापग्रह हो और उसका जवाब देने वाला लड़की अथवा लड़के की जन्मकुण्डली में उन्हीं स्थानों में शनि, मंगल अथवा तत्समान अन्य कोई पापग्रह हो तो मंगल का दोष नहीं लगता।
भौमेन सदृशो भौमः पापो तादृशो भवेत्। विवाहः शुभदः प्रोक्ताश्चिरायुः पुत्रपौत्रदः ।।
अर्थ- यदि वर अथवा कन्या दोनों की ही कुण्डली में समान भावों में ही मंगल अथवा तत्सदृश अन्य कोई पाप ग्रह हो अर्थात् कन्या की कुण्डली में जिस भाव में मंगल बैठा हो और जिन भावों में अन्य पापग्रह बैठे हों वर की कुण्डली में उन्हीं भावों में यदि उन्हीं के समान अनिष्ट कारक मंगल और अन्य पापग्रह हों तो वह विवाह कल्याण कारक है, पुत्र-पौत्र आदि को देने वाला है और वर- वधू के आयुष्य को बढ़ाने वाला है।
वक्रिणि नीचारिस्थे वार्कस्थे वा न कुजदोषः ।
अर्थ- वर-वधू की जन्मकुण्डली के किसी भी अनिष्ट स्थान में स्थित मंगल यदि वक्री हो वा नीच (कर्क राशि) का हो अथवा शत्रु (मिथुन वा कन्या) राशि का हो वा अस्तगत हो तो उस प्रकार का मंगलब अनिष्टकारक नहीं होता।
शुभयागादिकर्तृत्वे नाऽशुभं कुरुते कुजः । कुजः कर्कटलग्नस्थो न कदाचन दोषकृत् ।। नीचराशिगतः सोऽयं शत्रुक्षेत्रगतोऽपि च। शुभाऽशुभफलं नैव दद्यादस्तंगतोऽपि च ॥
अर्थ- शुभ ग्रहों के साथ सम्बन्ध करने वाला मंगल अशुभकारक नहीं होता। कर्क लग्न में स्थित व मंगल कभी भी अनिष्टकारक नहीं होता है। अपने नीच राशि में स्थित हो अथवा शत्रु क्षेत्र (मिथुन वा कन्या राशि) का हो किंवा अस्तगत हो तो शुभ वा अशुभ कोई फल नहीं देता।
तनुधनसुखमदनायुभिव्ययगः कुजस्तु दाम्पत्यम्। विघटयति तद् गृहेशो न विघटयति तुङ्गमित्रगेहे वा ॥
अर्थ- प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, एकादश और द्वादश इनमें से किसी एक स्थान में भी मंगल बैठा हो तो वह वर-वधू का विघटन करता है, परन्तु यदि वह अपने घर का हो, उच्च का हो, किंवा मित्रक्षेत्री हो तो दोष कारक नहीं होता।
अजे लग्ने व्यये चापे पाताले वृश्चिके कुजे। धने मीने घटे चाष्टौ भौमदोषो न विद्यते ।।
अर्थ- मेष राशि का मंगल लग्न में, धन का मंगल व्यय स्थान में, वृश्चिक राशि का मंगल चतुर्थ स्थान में, मीन का मंगल सप्तम स्थान में, कुम्भ राशि का मंगल अष्टम स्थान में हो तो मंगल का दोष नहीं लगता।
कुजो जीवसमायुक्तो युक्तो वा शशिना यदा। चन्द्रः केन्द्रगतो वाऽपि तस्य दोषो न मङ्गली ।।
अर्थ- जिस वर अथवा कन्या की कुण्डली में चौथे, सप्तम, अष्टम, द्वादश आदि अरिष्ट कारक स्थानों में से किसी एक स्थान में मंगल बृहस्पति के अथवा चन्द्रमा के साथ बैठा हो किंवा चन्द्रमा केन्द्र में हो तो वह मंगल 'मंगली' दोष वाला नहीं कहा जाता। ...................
शेष अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा।
गुरुजी कपिल भाई व्यास